वाद्य यंत्र ,ढोल पहाड़ के लोगों के जीवन की सार्थकता को दर्शाता है
1 min readलेख ” उत्तराखंड के प्रमुख वाद्य यंत्र — ढोल – दमाऊ .
वाद्य यंत्र ढोल उत्तराखंड लोक संस्कृति का प्रचीन प्रमुख पारम्परिक वाद्य यंत्र है , दमाऊ इसका पूरक वाद्य है जो साथ रहता है । कहते हैं 16वीं शताब्दी के आस पास ढोल की शुरुआत हुई , धीरे धीरे इसने अपना एक विशाल साम्राज्य बना डाला । इस संगीत साहित्य को ढोल सागर कहते हैं , बजने वाले संगीत को ताल – शब्द कहा जाता है । ढोल सागर में 1200 श्लोक हैं जिन्हें मंगल ताल , धुयाल ताल , बधाई ताल , शब्द ताल , पांडव ताल , गढ़ चताल ताल आदि नाम से जाना जाता है इनका अलग अलग महत्व और प्रयोग है जो विशेष अवसरों पर बजाये जाते हैं । इनके जानकरों , विशेषज्ञों को औजी या दास कहते हैं , ये उत्तराखंड की एक विशेष जाति है जो अस्पृश्य कहलाते थे , अब ये हरिजन कहलाने लगे हैं। ये पीढ़ी दर पीढ़ी जीविकोपर्जन के रूप में मेहनत से ये काम करते रहे व ढोल सागर विकास करता गया ।
कहते हैं ढोल और दमाऊ शाक्षात शिव और शक्ति के अवतार हैं । दमाऊ शिव अवतार और ढोल ऊर्जा व शक्ति के प्रतीक रूप में माँ पार्वती । ढोल दोनों तरफ से सुर ताल के साथ बजाया जाता है जिसे एक तरफ लकड़ी की छड़ से और दूसरी तरफ हाथ की थाप से बजाते हैं , यह ताबें या पीतल से बनी बेलनाकार संरचना है । जिसमें बकरे या बारहसिंघे की खाल मढ़ी जाती है , जबकि दमाऊ ताबें से कटोरे नुमा आकर से बनाया जाता है व दो लकड़ीयों की मदद से बजाया जाता है ।
यह पहाड़ों में चारों दिशाओं को गुंजायमान करके जगाने वाले
वाद्य हैं , जो समय के साथ प्रत्येक शुभ कार्य में नौबत , शबद ,
जागर , नृत्य , वार्ता व मंडाण आदि शैली की विधा के पर्याप्य बन गए । देवी देवताओं का आवाहन, उन्हें आमंत्रण इन यंत्रों – मन्त्रों से किया जाता रहा है । प्रारम्भ में ढोल सैनिकों में ऊर्जा , जोश , उत्साह और ललकार भरने के लिए किया जाता था , जो धीरे धीरेko
समय के साथ दैनिक जीवन में इनका पदार्पण होने से जीवन के हिस्से बनते गए , और अब प्रत्येक शुभ कार्य में इनकी उपस्थिति अनिवार्य हो चुकी ।
15 वीं शताब्दी में आईने अकबरी में ढोल के बारे में उल्लेख मिलता है । आज की चकाचौध , हमारे महत्वपूर्ण इन पारंपरिक वाद्य यंत्रों पर अपनी कुदृष्टि डाल चुका है , जिससे ये विधा खतरे की जद में
आ चुकी है।
कारण अनेक है जैसे – सरकारों द्वारा उदासीनता , औजियों के जीवन स्तर में गिरावट , शादी – विवाहों में ग्राहकों का बैंड – बाजों के प्रति लगाव , नई पीढ़ी का झुकाव सरकारी योजनाओं की तरफ , स्थानीय लोगों के पलायन एक बड़ा कारण , औजी कार्यों के शागिर्दों में भारी गिरावट , औजीयों की नयी पीढ़ियों द्वारा पैतृक कार्यों के प्रति रुझान नहीं उनका विरोध आदि के कारण वाद्यों के वादन की समूची शैली की उपेक्षा किसी अनहोनी का न्योता जैसा महसूस होता है ! और यही हाल रहा तो इस विद्या को विलुप्त होने से नहीं बचाया जा सकता ।
फिर भी संस्कृति बचाने के भरसक प्रयास किये जा रहे हैं । सरकारी , गैर सरकारी संस्थाएं सतत प्रयासरत हैं । अब उत्तराखंडी वाध्ययंत्रों पर कुछ कार्य प्रगति पर हैं , विश्विद्यालयों में स्थानीय संगीत के केप्सूल कोर्स , उन पर अध्ययन और शोध कार्य चल रहे हैं ! आशा सब कुछ शुभ और मंगलमय हो , हम सबकी कामना !
द्वारा — बिजय डोभाल , चूरू , राजस्थान
फोन — 9460213899 , धन्यवाद !