भगवान श्रीकृष्ण-बुलंद हौसलों की धधकती मशालः आशुतोष महाराज

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देहरादून । दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के संस्थापक एवं संचालक आशुतोष जी महाराज ने कहा कि मुसीबतों से घबराओ नहीं, उनका डटकर सामना करो। अपने जीवन की हर अमावस्या को पूर्णिमा में परिणित करने का जज्बा रखो। महापुरुषों का आदर्शमयी जीवन भी हमें यही प्रेरणा देता है। उनके हौसलों की गर्जना के आगे प्रत्येक परेशानी सहम कर लौट जाती थी। उनके संयम और धैर्य की शीतलता से बड़े-बड़े ज्वालामुखी शांत हो जाते थे। उनकी सकारात्मक सोच दुःख की कालिमा में भी सुख का उजाला कर देती थी। द्वापर में भी ऐसे ही एक महान अवतार का प्राकट्य हुआ था, जिन्हें आज संसार भगवान श्री कृष्ण के नाम से पूजता है। उनका सम्पूर्ण जीवन संघर्ष की एक खुली किताब है। जन्म से लेकर देहावसान तक, शायद ही उनके जीवन में कभी सुख-चैन की घड़ियाँ आईं हों। लेकिन अपने बुलंद इरादों से उन्होंने हर विलापमय क्षण को मांगल्य के क्षणों में तब्दील कर दिया। हर ढल चुकी शाम को दोपहर की तरह स्वर्णिम बना दिया। आइए, हम भी उनकी जीवन-लीला से अपने लिए प्रेरणा के कुछ रत्न चुनें।
सबसे पहले, हम उनके जन्म का समय देखें। रात्रि बारह बजे! यह ऐसा समय है, जब विराट सूर्य भी अंधकार की गहरी खाई में खो जाता है। यह समय देवताओं के रमण का नहीं, अपितु भूत-प्रेतों के नग्न तांडव का होता है। चंद शब्दों में समेटें तो, रात्रि के बारह बजे संसार की प्रत्येक क्रिया काली होती है। लेकिन भगवान कृष्ण ने यह कालिमा नहीं देखी। अगर कुछ देखा तो वह थी चंद्रमा की उज्ज्वल रौशनी! उन्होंने घोर रात्रि को अपने जन्म का लगन चुनकर, यह दिखा दिया कि इंसान की सोच ही समय को अनुकूल या प्रतिकूल बनाती है। हम समय के गुलाम नहीं, बल्कि वह ही हमारा गुलाम है।
भगवान कृष्ण का जन्म स्थल भी क्या था? कारागार! अत्यंत अशोभनीय स्थान! यहाँ पर जन्म लेकर उन्होंने सारी दुनिया को दिखा दिया कि जन्म-स्थान के कारण कोई महान नहीं होता। महान होता है तो अपने कर्मों से! आप संसार के कैदखाने में जन्म लेकर भी कैदी की तरह नहीं, एक जेलर की तरह जी सकते हैं। जो कारागार में होते हुए भी बंधन में नहीं है। मुक्त है।
इसके बाद जब वसुदेव प्रभु को लेकर यमुना पार करने लगे, तो भयंकर तूफान और बारिश होने लगी। प्रभु ने एक विशालकाय सर्प द्वारा अपने पर छाया करवाई। सर्प काल का प्रतीक माना जाता है। उसका कार्य ही मृत्यु देना है। लेकिन भगवान कृष्ण ने उसे अपना रक्षक बनाया। इस लीला द्वारा उन्होंने समाज के समक्ष एक बहुत विस्फोटक विचार रखा कि, यदि काल से भागना चाहोगे, तो नहीं भाग पाओगे। इसलिए उसे अपना मित्र बना लो। जब दुश्मन को ही दोस्त बना लिया, तो उससे भय कैसा? बल्कि अब दुश्मन ही तुम्हारी रक्षा करेगा। जिसका काल ही रक्षक हो जाये, उसे भला कैसे कोई हरा सकता है? उसकी जीत तो निश्चित ही है।
ऐसी और भी अनेक लीलाएँ हैं, जैसे छठी के दिन ही राक्षसी पूतना का वध, मात्र सात साल की आयु में गोवर्धन पर्वत उठाना, महाभारत युद्ध आदि- जो भगवान कृष्ण के बुलंद हौसलों और स्वस्थ सोच को प्रदर्शित करती हैं। सभी लीलाओं के द्वारा भगवान कृष्ण ने यही आदर्श रखा कि हर परिस्थिति में हम हौसला रखते हुए, सकारात्मक सोच रखते हुए फतह हासिल करें। लेकिन यह हौसला और सकारात्मक सोच इंसान के भीतर तभी जन्म लेती है, जब उसका अंतस् प्रकाशित होता है। जब उसकी जाग्रत आत्मा से उसे आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त होती है। यह सम्भव है मात्र ब्रह्मज्ञान से! एक पूर्ण सतगुरु हमें ब्रह्मज्ञान प्रदान कर परमात्मा के दिव्य प्रकाश रूप से जोड़ देते हैं। फलतः हमारा अंतस् आलोकित होता है और हम भगवान कृष्ण की तरह जीने की कला सीख पाते हैं। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से सभी पाठकों को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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