शरणागत शिष्य के जीवन में सदगुरू ‘चित्रगुप्त’ की तरहः भारती
1 min readशरणागत शिष्य के जीवन में सदगुरू ‘चित्रगुप्त’ की तरहः भारत
देहरादून । दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के संस्थापक-संचालक सदगुरू आशुतोष महाराज की असीम अनुकम्पा से रविवार को भी निरंजनपुर स्थित आश्रम सभागार में साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम का शुभारम्भ सदैव की भांति मर्मस्पर्शी भजनों की श्रंखला के प्रस्तुतिकरण से किया गया। भजनों का सारगर्भित विश्लेषण करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी सुभाषा भारती ने किया। सुभाषा भारती ने कहा कि सत्संग की महिमा अपरंपार है यह एक प्रकार का कायाकल्प कर देने वाला क्षीर सागर जैसा है जिसमें कौआ भी कोयल की मानिंद हो जाता है और बगुला हंस के रूप में परिवर्तित हो जाता है। एैसे ही पापी से भी पापी व्यक्ति भी जब सत्संग की महान औषधि का पान कर लेता है तो उसके भीतर भी आमूल-चूल परिवर्तन आने लगता है। जिसे संतों का संग मिल गया वह भवसागर से पार हो गया। जब भगवान जीव पर प्रसन्न होते हैं तो उसे संतों की संगत प्राप्त हुआ करती है, कहा भी गया- बिनु सत्संग बिबेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।
संत अपने शरणागत को ईश्वर से मिला देते हैं। संत अपने शिष्य को ‘ध्यान’ प्रदान करते हैं। ध्यान में शिष्य अपनी सांसों के भीतर आदि नाम के दिव्य स्पन्दन को अनुभव करते हुए परमात्मा का ध्यान किया करता है। आदिनाम के संबंध में आता है- सतगुरू शबद स्वरूप हैं, न आदि न अंत। पावन ब्रह्मज्ञान की दीक्षा देकर गुरूदेव शिष्य की श्वांसों में निरंतर चल रहे प्रभु के नाम को प्रकट कर दिया करते हैं, और फिर! शिष्य नियमित सुमिरन के द्वारा अपना एैसा अभ्यास बना लेता है जिससे सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते शिष्य प्रभु के पावन नाम का सुमिरन बिना किसी बाधा के करने लगता है, इसी नाम के संबंध में पावन शास्त्र भी कहता है- श्वांस-श्वांस सुमिरो गोविन्द, मन अंतर की उतरे चिन्त।
कार्यक्रम में सदगुरू महाराज जी की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी जाह्नवी भारती ने अपने उदबोधन में बताया कि पूर्ण गुरु जब शिष्य को पावन ब्रह्मज्ञान की दीक्षा प्रदान करते हैं तो शिष्य का समस्त भार वे स्वयं निर्वहन किया करते हैं। सदगुरू सृष्टि की वह अद्वितीय दिव्य सत्ता होते हैं जो सर्व अंतर्यामी और सर्व समर्थ हुआ करते हैं। शरण में आए शिष्य की सम्पूर्ण गतिविधियां सदगुरू ठीक इस प्रकार से देख लेते हैं जिस प्रकार से मनुष्य अपनी हथेली की रेखाओं को देख लिया करता है। घट-घट की जानने वाले गुरूदेव से शिष्य कुछ छुपाना भी चाहे तो छुपा नहीं पाता है। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि शरणागत शिष्य के जीवन में सदगुरू ‘चित्रगुप्त’ की तरह भूमिका निभाते हैं। जैसे दण्डाधिकारी धर्मराज के पास चित्रगुप्त विद्यमान रहकर जीव के समस्त कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं ठीक इसी प्रकार सदगुरूदेव भी शिष्य का समस्त अच्छा या बुरा अपनी दिव्य दृष्टि के द्वारा देखा करते हैं। माह का प्रथम रविवार होने पर आश्रम में गुरू का लंगर (भंडारा) लगाया गया।