प्रकृति से छेड़छाड़ भयावह खतरे का संकेत — ज्ञानेन्द्र रावत

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प्रकृति के साथ छेड़छाड़ आज समूची दुनिया के लिए भयावह खतरे का सबब बन चुकी है। तापमान में वृद्धि, मौसम में बदलाव और जलवायु परिवर्तन इसके जीवंत प्रमाण हैं। इन प्रकोपों से दुनिया त्राहि-त्राहि कर रही है, वहीं लाखों-करोडो़ं लोग इसके चलते अनचाहे मौत के मुंह में जाने को विवश हैं। मौसम में आये बदलाव ने इस संकट के भयावह रूप धारण करने में प्रमुख भूमिका निबाही है। असलियत में इस सबके पीछे मानवीय गतिविधियां पूरी तरह जिम्मेदार हैं जिसने दुनिया को तबाही के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। प्रकृति की बदहाली इसका जीता-जागता सबूत है। दुनिया में जिस तेजी से पेड़ों की तादाद कम होती जा रही है, हकीकत में उससे पर्यावरण तो प्रभावित हो ही रहा है, पारिस्थितिकी, जैव विविधता, कृषि और मानवीय जीवन ही नहीं, बल्कि भूमि की दीर्घकालिक स्थिरता पर भी भीषण खतरा पैदा हो गया है। जैव विविधता का संकट पर्यावरण ही नहीं, हमारी संस्कृति और भाषा का संकट भी बढ़ा रहा है। अमेरिकी पेन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोध में यह खुलासा हुआ है। शोध में कहा गया है कि दुनिया के उच्च जैव विविधता वाले प्रमुख पर्यावरणीय क्षेत्रों में समय के साथ साथ संस्कृति और भाष्य स्तर में काफी गिरावट दर्ज की गयी है। इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं है कि समृद्ध जैव विविधता के बिना हम किसी भी कीमत पर पर्यावरण की रक्षा नहीं कर सकते। विश्व बैंक ने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से संबंधित रिपोर्ट में कहा है कि पर्यावरण प्रदूषण के चलते हो रही तापमान में बढ़ोतरी के लिए दैनंदिन घटती जैव विविधता और मानवीय गतिविधियां सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जैव विविधता घटने की वजह से धरती दैनंदिन गर्म होती जा रही है जिससे अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड के साथ साथ दुनिया में तीसरे सबसे अधिक बर्फ के भंडार माने जाने वाले कनाडा के ग्लेशियर संकट में हैं। इनके पिघलने से इस सदी के अंत तक दुनिया भर के समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी हो जायेगी जिससे दुनिया के समुद्र तटीय बडे़ शहरों के डूबने का खतरा बढ़ जायेगा। जियोफिजीकल रिसर्च लैटर्स नामक शोध पत्रिका में यह खुलासा हुआ है। जैव विविधता के संकट को लेकर आये-दिन नयी-नयी रिपोर्ट में नये-नये तथ्य सामने आ रहे हैं जो इस बात के संकेत हैं कि आने वाले दिनों में हमें किस किस प्रकार के खतरों का सामना करना पड़ेगा

गौरतलब है कि प्रकृति मनुष्य की भोजन, पानी, साफ हवा, औषधि सहित जीवन की कई मूलभूत जरूरतों की पूर्ति करती है। इसके साथ साथ उसकी यह अपेक्षा भी रहती है कि मनुष्य उसके नैसर्गिक स्वरूप में किंचित मात्र भी दखल न दे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और उसने अपने भौतिक सुखों की चाह में प्रकृति के साथ जब चाहा और जैसा चाहा, वैसे छेड़छाड़ की जिसके कारण पर्यावरण तो बिगडा़ ही, जंगल, जीव और मनुष्य के बीच की दूरियां भी कम होती चलीं गयीं। जहां तक जंगलों के खत्म होने का सवाल है, उसकी गति देखते हुए ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब दुनिया से जंगलों का नामोनिशान तक मिट जायेगा और वह किताबों की वस्तु बनकर रह जायेंगे। हकीकत यह है कि हर साल दुनिया में एक करोड़ हेक्टेयर जंगल लुप्त होते जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र भी इसकी पुष्टि करता है। कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने इसका खुलासा किया है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दुनिया में कीडे़-मकोडे़ भी 3.5 करोड़ हैक्टेयर जंगल हर साल बर्बाद कर रहे हैं। इससे तो ऐसा लगता है कि इंसान तो क्या दूसरे जीव – जंतु भी जीवन के लिए जरूरी पेडो़ं-जंगलों के दुश्मन बनते जा रहे हैं। मौजूदा हालात तो यही गवाही दे रहे हैं। दुनिया के वैज्ञानिक बार-बार कह रहे हैं कि इंसान जैव विविधता के खात्मे पर आमादा है। जबकि जैव विविधता का संरक्षण हमें बीमारियों से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहता है। समृद्ध जैव विविधता हमारे अस्तित्व का आधार है। यह हमारे बेहतर भविष्य के लिए भी बेहद जरूरी है। इसीलिए जैव विविधता का संरक्षण बेहद जरूरी है। यहां इस कटु सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि यदि वनों की कटाई पर अंकुश नहीं लगा तो प्रकृति की लय बिगड़ जायेगी और उस स्थिति में वैश्विक स्तर पर तापमान में दो डिग्री की बढो़तरी को रोक पाना बहुत मुश्किल हो जायेगा। ऐसी स्थिति में सूखा और स्वास्थ्य सम्बंधी जोखिम से आर्थिक हालात और भी प्रभावित होंगे जिसकी भरपायी आसान नहीं होगी। सबसे बड़ी बात यह कि पेड़ों का होना हमारे जीवन के लिए महत्वपूर्ण ही नहीं, बेहद जरूरी है। यह न केवल हमें गर्मी से राहत प्रदान करते हैं बल्कि जैव विविधता को बनाये रखने, कृषि की स्थिरता सुदृढ़ करने, सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा करने और जलवायु को स्थिरता प्रदान करने में भी अहम योगदान देते हैं। फिर भी हम पेड़ों के दुश्मन क्यों बने हुए हैं, यह समझ से परे है। बीते कई बरसों से दुनिया के वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और वनस्पति व जीव विज्ञानी चेता रहे हैं कि अब हमारे पास पुरानी परिस्थिति को वापस लाने के लिए समय बहुत ही कम बचा है। यह भी कि हम जहां पहुंच चुके हैं वहां से वापस आना आसान काम नहीं है। कारण वहां से हमारी वापसी की उम्मीद केवल और केवल पांच फीसदी से भी कम ही बची है।

जहां तक जैव विविधता की महत्ता का सवाल है, अमरीका की ए एण्ड एम यूनिवर्सिटी स्कूल आफ पब्लिक हैल्थ के एक अध्ययन में खुलासा हुआ है कि पेड़-पौधों की मौजूदगी लोगों को मानसिक तनाव से मुक्ति दिलाने में सहायक होती है। 6.13 करोड़ मानसिक रोगियों पर किये गये अध्ययन में कहा गया है कि हरियाली के बीच रहने वाले लोगों में अवसाद की आशंका बहुत कम पायी गयी है। जिन लोगों के घरों के आसपास 100 मीटर के दायरे में पेड़-पौधों की संख्या अधिकाधिक पायी गयी, उन लोगों को अवसाद की दवा लेने की जरूरत ही नहीं रही है। लेकिन मानवीय स्वार्थ की लिप्सा यहीं खत्म नहीं होती। दुनिया में समृद्ध जैव विविधता वाली जमीन कब्जाने की घटनाओं में साल 2008 के बाद से तेजी से बढ़ोतरी हुयी है। ये घटनायें उप सहारा अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे क्षेत्रों पर असंगत रूप से प्रभाव डालती हैं। यह प्रवृत्ति मध्य पूर्वी यूरोप, उत्तरी और लैटिन अमेरिका व दक्षिणी एशियाई इलाकों में भूमि असमानता को बढा़ रही है। इससे जहां छोटे, मध्यम स्तर के खाद्य उत्पादकों को तेजी से अव्यवहार्य बना रही है, वहीं किसान विद्रोह, ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन, गरीबी और खाद्य असुरक्षा की भावना में बढ़ोतरी हुयी है। इस बारे में मानसिक स्वास्थ्य की जानी मानी प्रोफेसर एंड्रिया मेचली का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में हम वैश्विक स्तर पर जैव विविधता में तेजी से गिरावट को देख रहे हैं। जैव विविधता न सिर्फ हमारे प्राकृतिक वातावरण के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि ऐसे वातावरण में रहने वाले लोगों के मानसिक कल्याण के लिए भी उतनी ही अहम है। इसलिये इस बात पर गंभीरता से विचार किये जाने की जरूरत है कि जैव विविधता धरती और मानव स्वास्थ्य के लिए सह-लाभ के तत्व हैं और इसे महत्वपूर्ण बुनियादी मान कर इसकी रक्षा करनी चाहिए। असलियत यह है कि हमारे देश की गिनती दुनिया के सबसे अधिक 10 वन समृद्ध देशों में होती है। लेकिन बीते कुछेक दशकों में आर्थिक विकास और संसाधनों के अत्याधिक दोहन के कारण देश का सघन वन क्षेत्र का लगभग 80 फीसदी हिस्सा खोना पड़ा है। फिर बीते कुछ सालों से देश में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण अभियान चलाया जा रहा है। इसके चलते देश के वन क्षेत्र के विस्तार का दावा किया जा रहा है लेकिन हकीकत में इसे वन नहीं कहा जा सकता। सरकारी दावों का जायजा लें तो पता चलता है कि पिछले बीस सालों में अभी तक लगभग 20 हजार वर्ग किलोमीटर के घने जंगलों को गैर वन अधिसूचित किया गया है। विडम्बना यह कि उसकी भरपायी हेतु 11 हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में पेड़ लगा दिये गये। जबकि सच्चाई यह है कि इस तरह के हरित क्षेत्र में न तो जैव विविधता का ध्यान रखा जाता है और न ही पारंपरिक वनों की तरह यहां बड़े पेड़ से लेकर झाडी, घास, बरसाती पानी रोकने की संरचनाएं व वहां जीव-जंतुओं की मौजूदगी ही होती है। ऐसी हरियाली से धरती को बचाने के लिए वे लाभ नहीं मिल पाते हैं जो प्राकृतिक वनों से हासिल हो सकते हैं।

बीते दो दशकों में समूची दुनिया में 78 मिलियन हैक्टेयर यानी 193 मिलियन एकड़ पहाडी़ जंगल नष्ट हो गये हैं। जबकि पहाड़ दुनिया के 85 फीसदी से ज्यादा पक्षियों, स्तनधारियों और उभयचरों के आश्रय स्थल या यूं कहें कि घर हैं। इस बारे में यदि एशिया,उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका और यूरोप का जायजा लें तो पाते हैं कि पहाडी़ जंगलों के खात्मे की दर में एशिया 39.8 मिलियन हैक्टेयर वन नुकसान के मामले में सर्वोपरि है। गौरतलब यह है कि हर साल जितना जंगल खत्म हो रहा है, वह एक लाख तीन हजार वर्ग किलोमीटर में फैले देश जर्मनी, नार्डिक देश आइसलैंड, डेनमार्क, स्वीडन और फिनलैंड जैसे देशों के क्षेत्रफल के बराबर है। लेकिन सबसे बडे़ दुख की बात यह है कि इसके अनुपात में नये जंगल लगाने की गति बेहद धीमी है। लंदन के थिंक टैंक एनर्जी ट्रांसमिशन कमीशन की मानें तो समूची दुनिया में हर मिनट औसतन दस फुटबाल मैदान के बराबर यानी 17.60 एकड़ जंगल काटे जा रहे हैं। पर्यावरण विज्ञानी बर्नार्डों फ्लोर्स की मानें तो एक बार यदि हम खतरे के दायरे में पहुंच गये तो हमारे पास करने को कुछ नहीं रहेगा। यदि यू के स्थित साइट यूटिलिटी बिडर की नयी रिपोर्ट की मानें तो जंगल बचाने की लाख कोशिशों के बावजूद दुनिया में वनों की कटाई में और तेजी आई है और उसकी दर चार फीसदी से भी ज्यादा हो गयी है। मौजूदा दौर की हकीकत यह है कि दुनिया में हर मिनट 21. 1 हैक्टेयर में फैले जंगलों का खात्मा हो रहा है। फिर भी हम इस सबसे बेखबर मौन हैं। हम यह क्यों नहीं समझते कि यदि अब भी हम नहीं चेते तो हमारा यह मौन हमें कहां ले जायेगा और क्या मानव सभ्यता बची रह पायेगी ?

इस बारे में 2004 के लिए नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाली केन्या की पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधन मंत्री रहीं बंगारी मथाई का उस समय दिया बयान महत्वपूर्ण है कि जल, जंगल और जमीन के मुद्दे आपस में गहरे तक जुड़े हुए हैं। हमने प्राकृतिक संसाधनों और लोकतांत्रिक प्रशासन को बखूबी समझा है। वैश्विक स्तर पर भी यह प्रासंगिक है। प्राकृतिक संसाधनों का उचित प्रबंधन आज की सबसे बड़ी जरूरत है। जबतक यह नहीं होगा, शांति कायम नहीं हो सकती। नोबेल पुरस्कार समिति का भी यही सोच है। समिति का भी मानना है कि पर्यावरण, लोकतंत्र और शांति के अंतरसम्बंधों की पहचान जरूरी है। समिति ऐसे सामुदायिक प्रयासों को प्रोत्साहित करने की पक्षधर है जिससे धरती को बचाया जा सके। खासकर ऐसे समय में जब हम पेड़ों और पानी के साथ साथ जैव विविधता की वजह से पारिस्थितिकी के संकट से जूझ रहे हैं। इस बात में किसी तरह का संदेह नहीं है कि जब तक हम जल, जंगल, जमीन, खनिज और तेल जैसे संसाधनों का उचित प्रबंधन नहीं करेंगे तबतक गरीबी से नहीं लडा़ जा सकता। संसाधनों के उचित प्रबंधन के बगैर शांति कायम नहीं हो सकती। लोकतंत्र के लिए यह बेहद जरूरी है। फिर हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं, यदि उसे नहीं बदला तो पुरानी झड़पें बढे़ंगीं और संसाधनों को लेकर नयी लडा़इयां सामने खड़ी होंगी। मैं इस पुरस्कार का जश्न महात्मा गांधी के इन शब्दों के साथ मनाना चाहती हूं कि– मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। एक पेड़ जरूर लगायें।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।)

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